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आ शर्म॒ पर्व॑ताना॒मोतापां वृ॑णीमहे । द्यावा॑क्षामा॒रे अ॒स्मद्रप॑स्कृतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā śarma parvatānām otāpāṁ vṛṇīmahe | dyāvākṣāmāre asmad rapas kṛtam ||

पद पाठ

आ । शर्म॑ । पर्व॑तानाम् । आ । उ॒त । अ॒पाम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ । द्यावा॑क्षामा । आ॒रे । अ॒स्मत् । रपः॑ । कृ॒त॒म् ॥ ८.१८.१६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:18» मन्त्र:16 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:28» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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शिव शंकर शर्मा

कल्याण के लिये प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे आचार्य्यादि विद्वान् जनों ! हम प्रजागण (पर्वतानाम्) पर्वतों का (शर्म) सुख (आ+वृणीमहे) माँगते हैं (उत) और (अपाम्) नदियों का सुख (आ+वृणीमहे) माँगते हैं अर्थात् आप ऐसा उद्योग करें कि जैसे पर्वत और नदी परमोपकारी हैं, सदा नाना वस्तुओं से सुभूषित रहते हैं, उनसे सहस्रों जीवों का निर्वाह होता है, पर्वत उच्च दृढ़ और नदी शीतल होती है, हम मनुष्य भी वैसे होवें। यद्वा जैसे पर्वत और नदी को सब कोई चाहते हैं तद्वत् हम भी सर्वप्रिय होवें। यद्वा पर्वत और नदी के समीप हमारा वास होवे। (द्यावाक्षामा) द्युलोक के सदृश दीप्तिमती, पृथिवी के सदृश क्षमाशीला बुद्धिमाता और माता, ये दोनों यहाँ द्यावाक्षामा कहलाती हैं। हे बुद्धि तथा माता आप दोनों (रपः) पाप को (अस्मद्+आरे) हम लोगों से बहुत दूर देश में (कृतम्) ले जावें ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जो कोई पृथिवी और द्युलोक के तत्त्वों को सर्वदा विचारते हैं, वे पाप में प्रवृत्त नहीं होते, क्योंकि पाप में क्षुद्रजन प्रवृत्त होते हैं, महान् जन नहीं। तत्त्ववित् जनों का हृदय महाविशाल हो जाता है ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पर्वतानाम्) पर्वतों के (शर्म, आ) सर्वविध सुखों को (उत) और (अपाम्) अन्तरिक्षस्थ जलों के सुखों को (आवृणीमहे) हम अनुभव करते हैं, इसलिये (द्यावाक्षामा) हे अन्तरिक्ष तथा पृथिवी ! (अस्मत्, आरे) हमसे दूरदेश में (रपः, कृतम्) पापों को करो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे पापकारी मनुष्यो ! यह पृथिवी तथा अन्तरिक्ष, जो मनुष्यमात्र को सुख देनेवाले हैं, इन पर पाप मत करो, किन्तु इनसे पृथक् होकर करो अर्थात् सब स्थानों में पाप न करते हुए अपने जीवन को पवित्र और उच्चभावोंवाला बनाओ ॥१६॥
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शिव शंकर शर्मा

कल्याणप्रार्थनां विदधति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे आदित्याः। वयं पर्वतानां शर्म=सुखमावृणीमहे= आसमन्ताद्याचामहे। उत=अपि च। अपाम्=नदीनां शर्म आवृणीमहे। हे द्यावाक्षामा=द्यावापृथिव्यौ द्यावापृथिव्याविव प्रकाशक्षमायुक्ते मातरौ बुद्धिजनन्यौ। अस्मदस्मत्तः। रपः=पापम्। आरे=दूरदेशे। कृतमपगमयतम् ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पर्वतानाम्) गिरीणाम् (शर्म, आ) सर्वं सुखम् (उत) अथ (अपाम्) जलानाम् (आवृणीमहे) आभुञ्जामहे, अतः (द्यावाक्षामा) हे द्यावापृथिव्यौ ! (अस्मत्, आरे) अस्मत्तः दूरदेशे (रपः, कृतम्) पापं कुरुतम् ॥१६॥